कविता संग्रह >> दूब धान (सजिल्द) दूब धान (सजिल्द)अनामिका
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अनामिका की कविताओं का नया संग्रह है ‘दूब-धान’।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अनामिका की कविताओं का नया संग्रह है ‘दूब-धान’। इन
कविताओं में एक आधुनिक भारतीय स्त्री अपने भीतर की खिड़की से बहकर आता
संगीत सुनती है। मोहक विलम्बित स्वरों में बजता हुआ यह संगीत बेताबियों के
तिलिस्म की तरह पाठक तक सम्प्रेषित होता है वैसे हर दूसरे तिलिस्म की तरह
इसमें भी एक खास तरह का जोखिम है। अनामिका की कविताएँ ठीक उस समय आपसे
संवाद करती हैं, जब आप आँखें बन्द करके ध्यान करते हैं, या फिर जेबों में
हाथ डाले अपने इलाके की किसी शान्त सड़क पर, खुद में खोए हुए चहलकदमी कर
रहे होते हैं। आपके कदम ठीक उसी तरह ठिठक जाते हैं जैसे कोई स्वरबद्ध
धार्मिक कोरस किसी बुद्धिजीवी नास्तिक को क्षण भर के लिए निश्चल कर देता
है। एक स्त्री, जो खुद अपनी पड़ोसिन है, अनगिनत शब्दों में वे सवाल
बार-बार पूछती है जो आप अक्सर सुनना नहीं चाहते।
आप चाहें तो उन प्रश्नों से शुरुआत कर सकते हैं, जो वैशाली की नगरवधू ने कभी अपने आप से पूछे थे। अगर इतिहास में न जाना चाहें तो ‘अंकल’ के बोझ के तले दबी कमसिन सेक्स-वर्कर या यौन-दासी के सवालों का सामना कर सकते हैं। स्त्री-देह के इतिहास के इन दो सिरों के बीच न जाने कितने मुकामों पर कितनी गृहलक्ष्मियाँ और होमवर्क कराती हुई माताएँ समाधि लगाए बैठी हैं। उनकी तपस्या भी प्रश्नाकुल करती है। सवालों की यह अर्थगर्भित स्वर-लिपि स्त्री के ऊहापोह और उससे हाथ-भर दूर बैठे पुरुष के बीच की गुमसुम बहस के तत्त्वों से मिल कर रची गयी है।
अनामिका सिर्फ कविता में ही नहीं, बल्कि अपने सम्पूर्ण लेखन में नारी-दृष्टि की एक उदार सांस्कृतिक प्रवक्ता बनकर उभरी हैं। उनका स्वर नयी सहस्राब्दी का स्वर है, जिसकी थिर हलचलों में कुलबुलाते कोमल सवाल अपनी तमाम फितरतों के साथ स्थापित विमर्शों को अस्थिर करते चले जाते हैं।
आप चाहें तो उन प्रश्नों से शुरुआत कर सकते हैं, जो वैशाली की नगरवधू ने कभी अपने आप से पूछे थे। अगर इतिहास में न जाना चाहें तो ‘अंकल’ के बोझ के तले दबी कमसिन सेक्स-वर्कर या यौन-दासी के सवालों का सामना कर सकते हैं। स्त्री-देह के इतिहास के इन दो सिरों के बीच न जाने कितने मुकामों पर कितनी गृहलक्ष्मियाँ और होमवर्क कराती हुई माताएँ समाधि लगाए बैठी हैं। उनकी तपस्या भी प्रश्नाकुल करती है। सवालों की यह अर्थगर्भित स्वर-लिपि स्त्री के ऊहापोह और उससे हाथ-भर दूर बैठे पुरुष के बीच की गुमसुम बहस के तत्त्वों से मिल कर रची गयी है।
अनामिका सिर्फ कविता में ही नहीं, बल्कि अपने सम्पूर्ण लेखन में नारी-दृष्टि की एक उदार सांस्कृतिक प्रवक्ता बनकर उभरी हैं। उनका स्वर नयी सहस्राब्दी का स्वर है, जिसकी थिर हलचलों में कुलबुलाते कोमल सवाल अपनी तमाम फितरतों के साथ स्थापित विमर्शों को अस्थिर करते चले जाते हैं।
आम्रपाली
था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर !
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिये हाथ
गुजरती है वैशाली के खंडहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।
अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-
शरदकाल में जैसे
(कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी-
पक रही है मेरी हर मांसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत !
सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुईं मुझमें।
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे ?
ये मेरे सन-से सफेद बाल
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफेद दन्तपंक्ति :
खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाजा हैं अब जो !
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीखकर-
‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?’’
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’
‘‘जे आम्रपाली !
सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !’’
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उँगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें !’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाकी सब ढह जाएगा...’
‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गंगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक !
टिमकता रहा एक अंगारा,
तिरता रहा राख की इस नदी पर
बना-ठना,
ठना-बना
तैरा लगातार !
तैरी सोने की तरी !
राख की इच्छामती !
राख की गंगा !
राख की कृष्णा-कावेरी।
झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर !
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाकी खिले जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’
सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है !
कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुन्दर है
हर रूप में दुनिया !
मेरी ननिहाल के उत्तर !
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिये हाथ
गुजरती है वैशाली के खंडहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।
अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-
शरदकाल में जैसे
(कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी-
पक रही है मेरी हर मांसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत !
सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुईं मुझमें।
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे ?
ये मेरे सन-से सफेद बाल
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफेद दन्तपंक्ति :
खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाजा हैं अब जो !
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीखकर-
‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?’’
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’
‘‘जे आम्रपाली !
सौ हजार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे !’’
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उँगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें !’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाकी सब ढह जाएगा...’
‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गंगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक !
टिमकता रहा एक अंगारा,
तिरता रहा राख की इस नदी पर
बना-ठना,
ठना-बना
तैरा लगातार !
तैरी सोने की तरी !
राख की इच्छामती !
राख की गंगा !
राख की कृष्णा-कावेरी।
झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर !
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाकी खिले जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’
सुनती हूँ मैं गौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है !
कमंडल-वमंडल बनाने की खातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर मांसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुन्दर है
हर रूप में दुनिया !
तुलसी का झोला
मैं रत्ना-कहते थे मुझको रतन तुलसी
रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ !
किसी-किसी तरह सांस लेती रही
अपने गूदड़ में
उजबुजाती-अकबकाती हुई !
सदियों तक मैंने किया इन्तजार-
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,
ले जाएगा मुझको आके !
पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,
इस रत्ना की याद आती क्यों ?
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए
याद आयी ?...नहीं आयी ?
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी
जब मैं तुमसे झगड़ी थी !
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई !
नैहर बस घर ही नहीं होता,
होता है नैहर अगरधत्त अँगड़ाई,
एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फुर्सत !
तुमने उस इत्ती-सी फुर्सत पर
बोल दिया धावा
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-
मैंने तुम्हें डाँटा !
डाँटा तो सुन लेते
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...
पर तुमने दिशा ही बदल दी !
थोड़ी सी फुर्सत चाही थी !
फुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,
तुमने तो सारा समुन्दर ही फुर्सत का
सर पर पटक डाला !
रोज फींचती हूँ मैं साड़ी
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-
तार-तार होकर भी
वह मुझसे रहती है सटी हुई !
अलगनी से किसी आँधी में
उड़ तो नहीं जाती !
कुछ देर को रूठ सकते थे,
ये क्या कि छोड़ चले !
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं
राम तुम्हारे ?
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-
‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था ?
मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी !
तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की !
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,
लिखी गयी थी वो समानान्तर
लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक !
जब कुछ सखियों ने बताया-
चित्रकूट में तुम लगाते बैठे हो तिलक
हर आने-जाने वाले को-
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,
चौंका दूँ एकदम से सामने आकर !
पर एक नन्हा-सा डर भी
पल रहा था गर्भ में मेरे,
क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पाये
भक्तों की भीड़-भाड़ में ?
आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)
आँखों के नीचे
गहरी गुफा की
हहाती हुई एक साँझ उतर आयी है !
गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-
काँपते हैं लगातार-
आँसू की दो बड़ी बूँदें ही अब दीखते हैं वे !
सोचती हूँ-कैसे वे लगते-
दूध की दो बड़ी बूँदें जो होते-
आँचल में होता जो कोई रामबोला-
सीधा उसके होंठ में वे टपकते !
सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे !
सौत तो नहीं न बनी होगी
वो तुम्हारी रामभक्ति
एक बार नहीं, कुल सात बार
पास मैं तुम्हारे गयी
सात बहाने लेकर !
देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने
आँख उठाकर !
क्या मेरी आवाज भूल गये-
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर
तुममें हहा उठता था समुन्दर ?
वो ही आवाज भीड़ में खो गयी
जैसे आनी-जानी कोई लहर !
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति
खूब तुमने समझायी, प्रियवर !
एक बार मैंने कहा-
‘‘बाबा, हम दूर से आयी हैं घाट पर,
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,
आपके झोले में होगी ?
कहते हैं लोग, आपके झोले में
बसती है सृष्टि,
दुनिया में ढूँढ़-ढाँढ़कर
आ जाते हैं सारे बेआसरा
आपके पास,
जो चीज और कहीं नहीं मिली,
आपके झोले में तो रामजी ने
अवश्य ही डाली होगी !’’
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,
दूसरे से लकड़ी मुझको दी।
सचमुच कुछ लकड़ियाँ झोले में थीं-
जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,
धनिया, नमक की डली,
एक-एक कर मैंने सब माँगीं
दीं आपने सर उठाये बिना,
जैसे औरों को दीं, मुझको भी !
लौट रही हूँ वापस..खुद में ही
जैसे कि अंशुमाली शाम तक
अपने झोले में वापस
रख लेता है अपनी किरणें वे बची-खुची
कस लेता है खुद को ही
अपने झोले में वापस
मैं भी समेट रही हूँ खुद को
अपने झोले में ही !
अब निकलूँगी मैं भी
अपने सन्धान में अकेली !
आपका झोला हो आपको मुबारक !
अच्छा बाबा, राम-राम !
रतन-मगर गूदड़ में सिला हुआ !
किसी-किसी तरह सांस लेती रही
अपने गूदड़ में
उजबुजाती-अकबकाती हुई !
सदियों तक मैंने किया इन्तजार-
आएगा कोई, तोड़ेगा टाँके गूदड़ के,
ले जाएगा मुझको आके !
पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन,
इस रत्ना की याद आती क्यों ?
‘घन-घमंड’ वाली चौपाई भी लिखते हुए
याद आयी ?...नहीं आयी ?
‘घन-घमंड’ वाली ही थी रात वह भी
जब मैं तुमसे झगड़ी थी !
कोई जाने या नहीं जाने, मैं जानती हूँ क्यों तुमने
‘घमंड’ की पटरी ‘घन’ से बैठाई !
नैहर बस घर ही नहीं होता,
होता है नैहर अगरधत्त अँगड़ाई,
एक निश्चिन्त उबासी, एक नन्ही-सी फुर्सत !
तुमने उस इत्ती-सी फुर्सत पर
बोल दिया धावा
तो मेरे हे रामबोला, बमभोला-
मैंने तुम्हें डाँटा !
डाँटा तो सुन लेते
जैसे सुना करती थी मैं तुम्हारी...
पर तुमने दिशा ही बदल दी !
थोड़ी सी फुर्सत चाही थी !
फुर्सत नमक ही है, चाहिए थोड़ी-सी,
तुमने तो सारा समुन्दर ही फुर्सत का
सर पर पटक डाला !
रोज फींचती हूँ मैं साड़ी
कितने पटके, कितनी रगड़-झगड़-
तार-तार होकर भी
वह मुझसे रहती है सटी हुई !
अलगनी से किसी आँधी में
उड़ तो नहीं जाती !
कुछ देर को रूठ सकते थे,
ये क्या कि छोड़ चले !
क्या सिर्फ गलियों-चौबारों में मिलते हैं
राम तुम्हारे ?
‘आराम’ में भी तो एक ‘राम’ है कि नहीं-
‘आराम’ जो तुमको मेरी गोदी में मिलता था ?
मेरी गोदी भी अयोध्या थी, थी काशी !
तुमने कोशिश तो की होती इस काशी-करवट की !
एक ‘विनय पत्रिका’ मेरी भी तो है,
लिखी गयी थी वो समानान्तर
लेकिन बाँची नहीं गयी अब तलक !
जब कुछ सखियों ने बताया-
चित्रकूट में तुम लगाते बैठे हो तिलक
हर आने-जाने वाले को-
मैंने सोचा, मैं भी हो आऊँ,
चौंका दूँ एकदम से सामने आकर !
पर एक नन्हा-सा डर भी
पल रहा था गर्भ में मेरे,
क्या होगा जो तुम पहचान नहीं पाये
भक्तों की भीड़-भाड़ में ?
आईना कहता है, बदल गया है मेरा चेहरा,
उतर गया है मेरे चेहरे का सारा नमक
नमक से नमक धुल गया है (आँखों से चेहरे का !)
आँखों के नीचे
गहरी गुफा की
हहाती हुई एक साँझ उतर आयी है !
गर्दन के नीचे के दोनों कबूतर
चोंच अपनी गड़ाकर पंख में बैठे-
काँपते हैं लगातार-
आँसू की दो बड़ी बूँदें ही अब दीखते हैं वे !
सोचती हूँ-कैसे वे लगते-
दूध की दो बड़ी बूँदें जो होते-
आँचल में होता जो कोई रामबोला-
सीधा उसके होंठ में वे टपकते !
सोचती गयी रास्ते-भर-कैसे मिलोगे !
सौत तो नहीं न बनी होगी
वो तुम्हारी रामभक्ति
एक बार नहीं, कुल सात बार
पास मैं तुम्हारे गयी
सात बहाने लेकर !
देखा नहीं लेकिन एक बार भी तुमने
आँख उठाकर !
क्या मेरी आवाज भूल गये-
जिसकी हल्की-सी भी खुसुर-फुसुर पर
तुममें हहा उठता था समुन्दर ?
वो ही आवाज भीड़ में खो गयी
जैसे आनी-जानी कोई लहर !
‘तटस्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति
खूब तुमने समझायी, प्रियवर !
एक बार मैंने कहा-
‘‘बाबा, हम दूर से आयी हैं घाट पर,
खाना बनाना है, मिल नहीं रही सूखी लकड़ी,
आपके झोले में होगी ?
कहते हैं लोग, आपके झोले में
बसती है सृष्टि,
दुनिया में ढूँढ़-ढाँढ़कर
आ जाते हैं सारे बेआसरा
आपके पास,
जो चीज और कहीं नहीं मिली,
आपके झोले में तो रामजी ने
अवश्य ही डाली होगी !’’
बात शायद पूरी सुनी भी नहीं,
एक हाथ से आप घिसते रहे चन्दन,
दूसरे से लकड़ी मुझको दी।
सचमुच कुछ लकड़ियाँ झोले में थीं-
जैसे थी लुटिया, आटा, बैंगन,
धनिया, नमक की डली,
एक-एक कर मैंने सब माँगीं
दीं आपने सर उठाये बिना,
जैसे औरों को दीं, मुझको भी !
लौट रही हूँ वापस..खुद में ही
जैसे कि अंशुमाली शाम तक
अपने झोले में वापस
रख लेता है अपनी किरणें वे बची-खुची
कस लेता है खुद को ही
अपने झोले में वापस
मैं भी समेट रही हूँ खुद को
अपने झोले में ही !
अब निकलूँगी मैं भी
अपने सन्धान में अकेली !
आपका झोला हो आपको मुबारक !
अच्छा बाबा, राम-राम !
भामती की बेटियाँ
लिखने की मेज वही है,
वही आसन,
पांडुलिपि वही, वही बासन
जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा
दीया-बत्ती की वेला हर शाम !
कभी-कभी बेला और चम्पा भी
रख आती थी जाकर चुपचाप
खील-बताशा-पानी-दीया के साथ !
पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम-
कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन,
जैसे कि देखते हैं सुन्दर मूरत शिवजी की...
पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल !
फिर एक शाम एक आँधी-सी आयी,
बिखरने लगे ग्रन्थ के पन्ने,
टूटी तन्द्रा तो मुझे देखा
पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के,
चौंके : ‘हे देवि,
परिचय तो दें,
आप कौन ?’
मुझको हँसी आ गयी-
‘लाये थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न,
फिर आप लिखने में ऐसे लगे,
दुनिया की सुध बिसर गयी, लगता है जैसे भूल ही गये-
वेदान्त के भाष्य के ही समानान्तर
इस घर में बढ़ी जा रही है
पत्ती-पत्ती
आपकी भार्या भी !
तो क्या मैं इतनी बडी हो गयी
कि पहचान में ही नहीं आती ?’
पानी-पानी होकर
इस बात पर
पानी में ही
बहा आये
आप तो
अपनी वह पांडुलिपि,
जो मैं नहीं दौड़ती पीछे-
पृष्ठ बीछ ले आने पानी से,
गडमड हो चुकते सब अक्षर...
घुल जाती पानी में स्याही,
शब्द पर शब्द फिसल आते,
मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे,
जैसे कि चावल,
अक्षर पर अक्षर दुबारा उगाये
अपने सिंदूर और काजल से,
भूर्जपत्र फिर से सिले-
ताग-पात ढोलना लगाके !
अक्षर पर अक्षर
अक्षर पर अक्षर....
अक्षर मैं
और आप अक्षर,
टप-टप-टप-टप
ये लो,
रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों ?
क्यों रो रहे हैं जी...
चुप-चुप..?
वही आसन,
पांडुलिपि वही, वही बासन
जिसमें मैं रखती थी खील-बताशा
दीया-बत्ती की वेला हर शाम !
कभी-कभी बेला और चम्पा भी
रख आती थी जाकर चुपचाप
खील-बताशा-पानी-दीया के साथ !
पूरे इक्कीस बरस बस यही जीवन-क्रम-
कुछ देर इन्हें देखती काम में लीन,
जैसे कि देखते हैं सुन्दर मूरत शिवजी की...
पत्थर की मूरत ही बने रहे ये पूरे इक्कीस साल !
फिर एक शाम एक आँधी-सी आयी,
बिखरने लगे ग्रन्थ के पन्ने,
टूटी तन्द्रा तो मुझे देखा
पन्नों के पीछे यों भागते हुए जैसे हिरनों के,
चौंके : ‘हे देवि,
परिचय तो दें,
आप कौन ?’
मुझको हँसी आ गयी-
‘लाये थे जब ब्याहकर तो छोटी थी न,
फिर आप लिखने में ऐसे लगे,
दुनिया की सुध बिसर गयी, लगता है जैसे भूल ही गये-
वेदान्त के भाष्य के ही समानान्तर
इस घर में बढ़ी जा रही है
पत्ती-पत्ती
आपकी भार्या भी !
तो क्या मैं इतनी बडी हो गयी
कि पहचान में ही नहीं आती ?’
पानी-पानी होकर
इस बात पर
पानी में ही
बहा आये
आप तो
अपनी वह पांडुलिपि,
जो मैं नहीं दौड़ती पीछे-
पृष्ठ बीछ ले आने पानी से,
गडमड हो चुकते सब अक्षर...
घुल जाती पानी में स्याही,
शब्द पर शब्द फिसल आते,
मेहनत से मैंने वे अक्षर भी बीछे,
जैसे कि चावल,
अक्षर पर अक्षर दुबारा उगाये
अपने सिंदूर और काजल से,
भूर्जपत्र फिर से सिले-
ताग-पात ढोलना लगाके !
अक्षर पर अक्षर
अक्षर पर अक्षर....
अक्षर मैं
और आप अक्षर,
टप-टप-टप-टप
ये लो,
रोते हैं क्या ज्ञानी-ध्यानी यों ?
क्यों रो रहे हैं जी...
चुप-चुप..?
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